Monday 4 June 2012

धर्म खुराक आत्मा की

विचार :-
लोग अक्सर पूछते है की धर्म क्या है आखिर धर्म क्यों करे ?
तो मेरा उन लोगो से एक जवाब यही होता है की अगर संसार सागर से पार उतरना है और अपने इस भव में भी सुख शान्ति से जीना है तो धर्म आवश्यक है !
अगर आपको इतना भी समझ ना आये तो सिर्फ इतना समझ लीजिए की धर्म आत्मा की खुराक है ! जैसे भोजन और पानी के बिना शरीर टिक नहीं सकता ठीक उसी प्रकार धर्म के बिना आत्मा नहीं टिकती !
इसीलिए श्रेणिक जैन कहना चाहता है की धर्म को कभी नहीं छोडना चाहिए अपनी जिंदगी भर !

श्रेणिक जैन
जय जिनेन्द्र देव की
ओम् नमः सबसे क्षमा सबको क्षमा
उत्तम क्षमा पाप क्षय पुण्य जमा

3 comments:

  1. धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
    व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
    शिव (त्रिदेव) है तभी तो धर्म व उपासना है । ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

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  2. धर्म का अर्थ - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
    व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    धर्म सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
    धर्म एवं ‘उपासना द्वारा मोक्ष’ एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है । ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें ।

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    1. धर्म सकर्म में होता है । किया गया कर्म या किया जाना वाला कर्म, न्याय एवं नीति की दृष्टि से उचित लगता है तब सत्य को छुपाना या असत्य का सहारा लेना उचित है ।

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